Meer ki kavita aur bharatiya saundaryabodh
Material type:
- 9789326352574
Item type | Current library | Call number | Status | Barcode | |
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Central Library NIT Goa General stacks | 491.431 FAR (Browse shelf(Opens below)) | Available | 10026 |
किताब के बारे में: मीर की कविता और भारतीय सौन्दर्यबोध – ‘मीर की कविता और भारतीय सौन्दर्यबोध’ उर्दू के मशहूर आलोचक शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी की बेमिसाल किताब ‘शेर-ए-शोरअंगेज़’ का हिन्दी रूपान्तरण है। इस किताब में लेखक ने मीर की कविता के बहाने समूची उर्दू कविता को दो क्लासिक भाषाओं संस्कृत और फ़ारसी के काव्यचिन्तन की रोशनी में देखा है। इस प्रक्रिया में फ़ारूक़ी क़दम-क़दम पर आतिश; नासिख; अबरू; सौदा; कायम; हातिम; शालिय; मोमिन और दाग़ सहित तमाम दूसरे उर्दू शायरों से मीर का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए आगे बढ़ते हैं। इस यात्रा में साथ चलते पाठक की अनुभूति-क्षमता जैसे-जैसे विकसित होती है; उसके हाथ मानो कोई दबा हुआ ख़ज़ाना लगता है। यही नहीं, पश्चिमी काव्यचिन्तन से भी फ़ारूक़ी भरपूर लाभ उठाते हैं। राष्ट्रों और महाद्वीपों के दायरों को पार कर उनकी वैश्विक दृष्टि मानो समूची मानवता द्वारा इस दिशा में अब तक हासिल की गयी समझ को हम तक पहुँचाने के लिए इस किताब को माध्यम बनाती है। मीर के बारे में आमतौर पर ये ख़याल किया जाता है कि रोज़मर्रा की आमफ़हम ज़ुबान के शायर हैं। फ़ारूक़ी इस मिथक को खण्डित करते हुए यह दिखाते हैं कि दरअसल मीर ने अप्रचलित शब्दों, मुहावरों और अरबी-फ़ारसी तरक़ीबों का इस्तेमाल और किसी भी शायर से ज़्यादा किया है। उनकी महानता इस बात में निहित है कि आमफ़हम भाषा के बीच इनका प्रयोग उन्होंने कुछ इस अन्दाज़ से किया है कि इनका अर्थ अपने सन्दर्भ के सहारे पाठक पर खुलने लगता है और ये अपरिचित नहीं लगते। अपने समय में प्रचलित जनभाषा पर, जिसे फ़ारूक़ी ने प्राकृत कहकर सम्बोधित किया है; चूँकि मीर का असाधारण अधिकार था इसलिए उनका निरंकुश ढंग से प्रयोग करके भी मनचाहा अर्थ निकाल लेने की उनकी क्षमता कबीर और शेक्सपियर जैसी ही थी। इस विवेचन में भाषा की बारीकियाँ तह-दर-तह खुलती हैं और हम हिन्दी-उर्दू की अपनी खोयी हुई साझा ज़मीन को फिर से हासिल करते हुए से लगते हैं। इसके साथ-साथ मीर की कविता का जो चयन विश्लेषण के साथ फ़ारूक़ी ने यहाँ प्रस्तुत किया है उसे बड़ी आसानी से दुनिया के हर दौर की बड़ी से बड़ी काव्योपलब्धि और आलोचकीय कारनामे के समतुल्य ठहराया जा सकता है। इश्क़ के मुहावरे में कही गयी बातों की इन्सानी तहज़ीब के दायरे में क्या हैसियत है; इस सवाल का जवाब हमें इस किताब में मिलता है। मसलन, आशिक़ और माशूक़ का रिश्ता किस क़दर मानवीय है : शरीर की इसमें क्या भूमिका है; इसमें कौन कितनी छूट ले सकता है और इसके बावजूद माशूक़ का मर्तबा किसी भी हालत में कम नहीं होता वरना शायरी अपने स्तर से गिर जाती है। इश्क़ के इस कारोबार में इसके अलावा प्रतिद्वन्द्वी और सन्देशवाहक जैसे पारम्परिक चरित्रों के साथ गली-मुहल्ले के निठल्ले मनचलों से लेकर तमाम कामधन्धों में लगे ढेरों लोगों की भर-पूरी दुनिया आबाद है, जिनकी धड़कनों का इतिहास मीर की शायरी में सुरक्षित है। फ़ारूक़ी एक जगह इसकी तुलना चार्ल्स डिकेंस के उपन्यासों से करते हैं। इससे गुज़रते हुए हमारे सामने सत्रहवीं-अठारहवीं सदी के हिन्दुस्तान के जनजीवन और मूल्यबोध का अनूठा दृश्य खुलता है। इस तरह इस किताब को पढ़ते हुए बरबस ही हम अपने मौजूदा नज़रिये की तंगी और अपनी अल्पज्ञता पर चकित होते हैं और इसके प्रति सचेत करने के लिए लेखक के शुक्रगुज़ार भी।—कृष्ण मोहन
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